लगभग 15 वर्ष पूर्व की बात होगी जब दो-तीन सांसदों के पास नोटों से भरे ब्रीफकेस प्राप्त हुए थे। जब उनपर कानून का शिकंजा कसने की बात आयी थी तब उन्होंने कहा था कि हम सांसद हैं और हमपर कार्यवाही नहीं की जा सकती। इस खबर को पढ़कर मैं चौंक गयी थी। हम कितने भी शिक्षित हो जाएं लेकिन हमारी शिक्षा केवल अपने कार्य क्षेत्र से ही जुड़ी होती है और इस कारण आम जनता को नहीं मालूम की हमारे यहाँ कानून व्यवस्था क्या है? तब मैंने सरसरी तौर पर इस कानून को जानने की कोशिश की। मैं सरसरी तौर पर इसलिए लिख रही हूँ कि मैंने कानून की पढ़ाई नहीं की बस बुद्धि का प्रयोग करते हुए थोड़ी बहुत जानकारी एकत्र की, इसलिए देश का प्रत्येक नागरिक थोडी सी जागरूकता रखते हुए बहुत सारी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
इस देश में अंग्रेजों ने कई कानून बनाए। चूंकि वे राजा थे और हम प्रजा, इसलिए उन्होंने ऐसे कानून बनाए जिससे राजा सुरक्षित रहे और प्रजा को कभी भी सींखचों के अन्दर किया जा सके। दुर्भाग्य से आज तक हमारे देश में वही कानून लागू हैं। कानून के अन्तर्गत राजनेता और नौकरशाहों [bureaucracy ] पर सीधी कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इसके लिए उनके शीर्ष अधिकारी की सहमति आवश्यक है। जैसे एक इंजिनियर के ऊपर आरोप लगे तो उसके चीफ इंजिनीयर की सहमति के बाद ही उस पर कार्यवाही होगी। इसी प्रकार सांसद member of parliament या मंत्री पर मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री की सहमति आवश्यक है। इस कारण कोई भी राजनेता और नौकरशाह सजा नहीं पाते और खुलकर भ्रष्टाचार करते हैं।
इस कारण देश में लोकपाल विधेयक की बात आयी। इसके अन्तर्गत इन लोगों पर सीधी कार्यवाही की जा सकती थी लेकिन इसके दायरे में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को मुक्त रखा गया। यह कानून पास नहीं होने दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधान मंत्री थे तब उन्होंने कानून के दायरे में प्रधान मंत्री को भी सम्मिलित कराया लेकिन विधेयक पास नहीं हो पाया। अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति बने तब उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति भी विधेयक के दायरे में आने चाहिए लेकिन विधेयक फिर भी पास नहीं हुआ। इसलिए आज आवश्यकता है कि सर्वप्रथम लोकपाल विधेयक पारित हो जिससे रातनेता और नौकरशाहों पर सीधी कार्यवाही हो सके। इसलिए मैंने एक टिप्पणी में लिखा था कि जिस दिन हमारा कानून बदल जाएगा उस दिन भ्रष्टाचार कपूर की तरह उड़ जाएगा।
भ्रष्टाचार का दूसरा बड़ा कारण है विलम्बित न्याय व्यवस्था। इसके लिए भी अंग्रेजों का कानून ही आड़े आ रहा है। पूर्व में हमारे यहाँ ग्रामीण पंचायती कानून था, और व्यक्ति को अविलम्ब न्याय मिलता था लेकिन इस व्यवस्था को समाप्त कर न्यायालयों की स्थापना की गयी। जहाँ आज लाखों केस बरसों से प्रतीक्षारत हैं। इसलिए इस कानून में बदलाव कर पुन: पंचायती राज की स्थापना करनी चाहिए और लम्बित प्रकरणों को शिविर लगाकर समाप्त करना चाहिए। इसके लिए जनता को ही दवाब बनाना होगा। हम जागरूकता का प्रसार करें। जिस दिन जनता को भ्रष्टाचार का मूल कारण समझ आ गया उस दिन से भ्रष्टाचार समाप्त होना प्रारम्भ हो जाएगा। अभी हम समझते हैं कि हमारा कानून पुख्ता है और भ्रष्ट लोगों को निश्चित रूप से सजा होगी, लेकिन यह हमारी भूल है। मैं इसलिए अंग्रेजों का जिक्र करती हूँ कि उन्होंने हमारे यहाँ जो व्यवस्थाएं स्थापित की वे भारत के विपरीत थी। मैं आत्म-मुग्ध भी नहीं हूँ बस इतना जानती हूँ कि जो निरापद व्यवस्थाएं हमारी थी उन्हें हम पुन: लागू करवाएं। व्यवस्था में परिवर्तन ही हमारी समस्याओं का हल है।
बहुत ही अच्छी विवेचना की है आपने ,यह सही है की व्यवस्था में बदलाव होना चाहिए लेकिन अगर हम जनता एकजुट हो व्यवस्था में बैठे लोगों के भ्रष्टाचार और कुकर्मों को लगातार आवाज उठाकर उस पर कार्यवाही की मांग करें तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी मजबूर हो जायेंगे कार्यवाही के लिए | असल समस्या है हम लोग इस काम के लिए अपना समय और कुछ रुपया भी खर्च करने को तैयार नहीं हैं और अपने-अपने स्वार्थ की लड़ाई में व्यस्त हैं जिससे जनहित की लड़ाई और व्यवस्था की निगरानी से हमसब दूर हो गए हैं |
ReplyDeleteसौ बात की एक बात ...जब तक लोग लालुओं और नितीशों के बीच फ़र्क़ करना नहीं सीखेंगे कोई कुछ नहीं कर सकता.
ReplyDelete11,000 करोड़ के कथित घोटाले की खबर सुनते ही विपक्ष के मुंह में पानी आ गया कि चलो वोटर को फिर बर्गलाया जाए क्योंकि वोटर अपने बल पर सच्चाई न जानकर इनके मुंह से सुने "सच्चाई" के संस्करण पर आज भी विश्वास करता है.
आदरणीया
ReplyDeleteएक सार्थक आलेख के लिए धन्यवाद
- विजय तिवारी किसलय
आपका कहना बिलकुल सही है लेकिन दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा. जितने भी नेता चुने जाते है उनकी कोई जवाबदेही नहीं है. नेता और गुंडे मिल कर एक खतरनाक गठबंधन बना चुके है और कानून नाम कि चिड़िया अपने जेब में लेकर घूमते है. इसी कारण से आज लोकपाल विधेयक का ये हश्र है. इस विषय पर लिखे हुए मेरे लेख में मैंने एक पांच सूत्री फोर्मुला सुझाया था. उस लेख पर विचार व्यक्त करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteहमारी ऐसी कानून व्यवस्था है तभी तो मायावती के अधिकतर सिपह-सलार अपराधी ही हैं.
ReplyDeleteइस सार्थक लेख के लिए धन्यवाद.
आपके दोनों ही प्रश्न उचित हैं और चिन्तनीय हैं।
ReplyDeleteसाठ साल बाद भी अंग्रेजों को दोष देने से क्या होगा:? अँगरेज़ छः दशक पहले चले गए, अगर भारतीयों की नीयत साफ़ होती तो गुलाम रखने वाले कानून आज़ादी के पहले दिन बदल चुके होते. नीयत बुरी हो तो हर कानून का दुरूपयोग किया जा सकता है. भारत को जितना अफसरों और नेताओं ने साठ सालों में लूटा है, अंग्रेजों ने दो सौ सालों में उसका एक प्रतिशत भी नहीं लूटा होगा. किसी देश का प्रशासन उस देश की नागरिकों का आइना होता है. जनता जिस लायक होती है उसे वैसे ही शासक-प्रशासक मिलते हैं.
ReplyDeleteसभी नेताओं का विश्वास है की भीड़ के पास खुद का दिमाग नहीं होता, वह भेडचाल में चलती है. भारत लोकतंत्र नहीं भीडतंत्र है. मेरा भी यही मानना है.
अँगरेज़ कम से कम अपने फायदे के लिए सही काम तो करते थे. भारतीय हद दर्जे के स्वार्थी हैं और काम नहीं करते जब तक सर पर तलवार न लटकी हो.
भ्रष्टाचार को कम करने के उद्देश्य से बने बिल के बारे में देश के सबसे जनप्रिय प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की असफलता क्या दर्शाती है? और फिर कब तक हम अपनी अपंगता का दोष अंग्रेज़ों को देते रहेंगे. भारत की जनता ने अंग्रेज़ों की फौज़ में नौकरी भी की थी क्योंकि भारतीय राजे उन अंग्रेज़ों से कई दर्ज़े आगे के क्रूर, चरित्र्हीन और भ्रष्ट थे. शर्म की बात है कि 1857 में तांतिया टोपे के विरुद्ध अपनी तोपें चलाने वाला राजवंश स्वतंत्रता पाते ही सत्ता और विपक्ष दोनों पर काबिज हो गया। समस्या अंग्रेज़ों की नहीं हमारी है। और यह हमें ही देखना पडेगा कि इस भारतीय अवसरवादी वर्ग को कैसे काबू किया जाये।
ReplyDeleteकल (26/7/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा।
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
अजित जी,
ReplyDeleteआपने जिस प्रकरण का ज़िक्र किया है वो झामुमो सांसद रिश्वत कांड से संबधित है...नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री रहते हुए अ्पनी सरकार को अल्पमत से बहुमत में बदलने के लिए शिबू सोरेन के चार झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को नोटों से भरे सूटकेसों से खरीदा था...उस कांड का क़ानूनी अंजाम ये हुआ था कि सांसदों को सदन में किए गए किसी भी अधिकार प्रयोग (वोटिंग) के लिए सवालों के कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता है...ये क़ानून का विद्रूप ही है कि जो रिश्वत दे वो तो गुनहगार लेकिन जो रिश्वत ले उसे संसद में मिली इम्युनिटी की वजह से कोई सज़ा नहीं दी जा सकती...रिश्वत देने वाले भी सबूत न होने की वजह से बच गए...जब सत्ता का शीर्ष ही भ्रष्टाचार के पाए पर टिका हो तो वो किस मुंह से नीचे वालों को भ्रष्टाचार न करने की नसीहत दे सकता है...
जय हिंद...
अभी हम समझते हैं कि हमारा कानून पुख्ता है और भ्रष्ट लोगों को निश्चित रूप से सजा होगी, लेकिन यह हमारी भूल है। आप से सहमत है जी, हम अग्रेजो के गुलाम थे, ओर गुलाम को दवाने के लिये ही उन्होने सख्त से सख्त कानून बनाये थे, जिस से जनता दबी रहे, आजादी के बाद हमे फ़िर से सभी कानून दोबारा से बनाने चाहिये थे, जो जनता के हक मै हो, लेकिन ऎसा नही हुआ... ओर आज भी हम पिस रहे है पहले अग्रेजो के हाथो ओर आज इन चोर उच्च्को के हाथो.... सच कहु अगर स्थिति नही सुधरी तो... दुखी जनता कब तक आत्म हत्या करेगी... एक दिन ऎसी क्रांति आयेगी जेसी रोमनिया मे आई थी... ओर उस दिन यह माया शाया या लालु बालू सब के सब छुपना भी चाहेगे तो इन्हे छुपने की जगह भी नही मिलेगी.... रोमानिया के राजा को कुत्ते की तरह से सडको पर दोडा दोडा कर ओर तडपा तडपा कर मारा था.... कही ऎसा ही हाल ना हो हमारे इन चोर उच्चको का... अभी समय है समभल जाये....जिस दिन जनता जाग गई उस दिन इस समुंदर को समभाल पाना नामुमकिन होगा
ReplyDeleteये सच है की व्यवस्था परिवर्तन होना चाहिए ... पर कौन करेगा ... आज की जितनी भी पार्टियाँ है किसी के भी अजेंडे में ये बात नही है ... तो कौन आयेज आएगा ... सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी है
ReplyDeleteआपके उत्कृष्ट एवं सार्थक लेखन के लिए साधुवाद.
ReplyDeleteभारत में क्रांति असंभव है, इसके लिए ज़मीन ही नहीं है . लोग भाग्यवादी हैं, और अपने साथ हो रहे अन्याय को पूर्वजन्म का फल मानते हैं. हमारी संस्कृति में किसी भी तरह की क्रांति रोकने के सारे इंतजाम हैं. हम हजारों साल गुलाम रहे, सनकी भारतीय राजाओं के अन्याय सहते रहे, तुर्क, मंगोल, शक्य, अफगान, उज्बेको, यूरोपियों के कत्लेआम और गुलामी झेलते रहे. पर एक भी क्रांति हुई?
ReplyDeleteवो तो भला हो जर्मनी का की उसने चालीस के दशक में ब्रिटेन को राजनैतिक, सामरिक और आर्थिक रूप से काफी कमज़ोर कर दिया था, जिसके चलते उसके लिए उपनिवेशों को संभालना कठिन हो गया.
दिया लेकर भी निकलो तो कोई मुश्किल से ही इमानदार नज़र आयेगा । किससे जाकर फरियाद करें ।
ReplyDeleteदम घुटता है इस व्यवस्था में ।
अजीत जी ,
ReplyDeleteआपकी बात सही है...पर व्यवस्था बदलने वाले कौन हैं .....जनता को अपनी ही रोज़ी रोटी की फ़िक्र सताती है...जैसे भी काम निकले बस उतना ही सोचती है..
विचारणीय एयर चिंतनीय लेख .
बहुत विचारणीय पोस्ट कोई कुछ करता नहीं करना चाहता नहीं और करने देना चाहता
ReplyDeleteनहीं यही है आज का सच
ममा.... यह बात एकदम सही है कि अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए और हिसाब से क़ानून बनवाए... जो कि अभी तक चले आ रहे हैं.... यह अंग्रेजों की ही देन है कि ... हमारे क़ानून में कोई भी किसी को भी कैसे भी फंसा सकता है.... और बाद में जांच होती है.... जांच में इन्सान निर्दोष निकला तो उसे जेल से बाहर निकाला जाता है... पर उस आदमी का क्या..उसका तो सब गया...लेकिन फिर भी ... लौ कमिशन अभी स्ट्रोंग हुआ है... और कई फेर-बदल किये हैं.... इसलिए उम्मीद कर सकते हैं.... कि आने वाला दिन सही होगा...
ReplyDeleteविचारणीय -भ्रष्टाचार को राजकीय संरक्षण हमेशा मिला रहा है -अंग्रेजों को क्यों कोसें हम इतने नकारा और जाहिल बने हुए हैं की अभी भी उनका ही क़ानून ओढ़े हुए हैं उसे बदल नहीं पा रहे हैं -एक और अम्बेडकर की जरूरत है !
ReplyDeleteab inconvinienti और स्मार्ट इंडियन से सहमत।
ReplyDeleteकटु सचाई यह है कि यहाँ की व्यवस्था बदलने के लिए वर्तमान संविधान और विधान के स्थान पर एकदम नया विधान लाना पड़ेगा। समस्या यह है कि राजनीतिक कारणों से संविधान 'अनूठा वेद' बना हुआ है जिसमें संशोधन तो बहुत हो रहे हैं लेकिन यह समझने, कहने और करने का साहस ही नहीं है कि यह स्वभावत: दोषयुक्त है, इसे हटा कर नया लाओ।
honesty project democracy का कहना भी सही है - हम लोग इस काम के लिए अपना समय और कुछ रुपया भी खर्च करने को तैयार नहीं हैं और अपने-अपने स्वार्थ की लड़ाई में व्यस्त हैं।
ऐसी बहसों की सार्थकता यह है कि ये हमें जगाए रखती हैं। बाकी तो बस बाकी ही रहना है।
ऐसा नहीं है कि विकसित देशों में भ्रष्टाचार नहीं होता लेकिन उनके यहाँ एक तो बहुत कम होता है,दूजा वे स्तर बनाए रखते हैं। कमीशनखोरी काम की क़्वालिटी और गति से समझौता नहीं करती। यहाँ सत्ता और शक्ति पाते ही हर व्यक्ति मदान्ध हो जाता है - विकृतियाँ और स्वार्थ उसे नंगई पर उतारू कर देते हैं। महिला हॉकी और वेटलिफ्टिंग के कोच जनों की करनी प्रमाण है।
... बहुत कठिन विषय है। कई लेख पढ़ने के बाद सोचा कि चलो आज टिप्पणी कर ही देते हैं।
भ्रष्ट अफसर , लचर कानून व्यवस्था और पुलिस प्रशासन पर हम अंगुली तो उठायें मगर इसके जिम्मेदार कौन है ...
ReplyDeleteये लोंग इतने दबाव में काम करते हैं ....कि अपने आप सिस्टम का हिस्सा बनते जाते हैं ....
बहुत विचारणीय आलेख ...भावेश की टिप्पणी भी बहुत कुछ स्थिति को स्पष्ट करती है ..!
बहुत सुन्दर विवेचनापूर्ण पोस्ट है .... पर जैसा कि आपने खुद लिखा है कि नियम कानून ही ऐसे बनाये गए हैं कि भ्रष्टाचार करने वाले सुरक्षित रहे ...
ReplyDeleteएक बात और है ... कि जागरूकता की हमारे देश में सर्वथा कमी है ... गरीबी इतना है कि आदमी पेट का जुगाड करे या जागरूक बने ...
और गरीबी क्यूँ है ... जनसंख्या ... पांच रोटी हो और पचास खानेवाले तो गरीबी तो होगी ही ...
आपका लेख डेली नियुज़ एक्टिविस्ट के आज के संस्करण में प्रस्थ न. 8 पर प्रकाशित हुआ है.
ReplyDeletehttp://65.175.77.34/dailynewsactivist/Details.aspx?id=8273&boxid=27114240&eddate=7/26/2010
http://65.175.77.34/dailynewsactivist/epapermain.aspx
खुशदीपजी
ReplyDeleteआपने पूरा प्रकरण बताकर अच्छा किया, वैसे इस काण्ड में नरसिंहाराव का नाम मैं लिखना चाह रही थी लेकिन जान-बूझकर नहीं लिखा क्योंकि जब मैं अंग्रेजों का नाम लिखती हूँ तो कई लोगों को बहुत तकलीफ होती है इसलिए नरसिंहाराव का नाम लिखने पर तो आपत्ति भी हो सकती थी।
शाहनवाज जी
आपने समाचार पत्र में आलेख प्रकाशित होने की सूचना दी, इसके लिए आभार। यदि हम सब इसी प्रकार किसी भी मुद्दे तो ब्लाग पर उठाते रहेंगे तो एक दिन हमारी आवाज समाचार-पत्रों की भी आवाज बनेगी और देश में परिवर्ततन के लिए वर्तमान राजनैतिक व्यवस्थाएं मजबूर होंगी। आप सभी ने अपने अमुल्य सुझाव दिए इसके लिए आभारी हूँ।
फिलहाल तो भ्रष्टाचार से मुक्ति पाना लगभग असंभव है. कोई बड़ा परिवर्तन या चमत्कार ही ऐसा कर सकता है.
ReplyDeleteआपने तो बहुत अच्छा लिखा...
ReplyDelete________________________
'पाखी की दुनिया ' में बारिश और रेनकोट...Rain-Rain go away..
अपकी हर बात सही है। हम जिन्हें अपने लिये चुन कर भेजते हैं वो केवल अपनी सुरक्षा के लिये कानून बना कर बैठ जाते हैं । भ्रष्टाचार का दानव दिन व दिन अपने पंजे फैला रहा है। पता नही फिर कभी भारत के सपने साकार होंगे कि नही। जै हिन्द।
ReplyDeleteparivartan hi marg hai- sahi hai
ReplyDelete
ReplyDeleteआपकी बात में दम है।
…………..
पाँच मुँह वाले नाग देखा है?
साइंस ब्लॉगिंग पर 5 दिवसीय कार्यशाला।
पंचायतों में भी हमारे बीच से शक्तिशाली लोग ही जाएँगे। और वे जो हाल करेंगे उसे देख राक्षस भी देवता नजर आएँगे। परसों ही एक सरपंच के पति ने एक नवयुवक को पैरों से बाँध तलवों पर जो डंडे बरसाए कि वह उल्टा तड़पता व्यक्ति सिर के बल गिर गिरकर तड़प रहा था़ यही सब होगा पंचायतों में और हाँ नवयुवक नवयुवतियों को भी वे अपने मन से जिस किसी के खूँटे बाँध आएँगे। पुराना सदा भला लगता है किन्तु होता नहीं। यदि होता तो जाति प्रथा न होती, ठाकुर जिस तिस का हाल बेहाल न करते। ये सब बुराइयाँ हमारी अपनी थीं। हर बुराई के लिए हम अंग्रेजों पर निर्भर नहीं थे!
ReplyDeleteघुघूती बासूती
aapne bahut sahee kaha hai ki jab tak kanoon ko khud nahin kasa jayega tab tak vah apradhiyon par apna shikanja nahin kas payega. aaj to aisa lagta hai ki log har kanoon ki apni vyakhya kar lete hain, vah bhee aise swar me jo satta ke kanon ko bhaye.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी विवेचना की है आपने ,यह सही है की व्यवस्था में बदलाव होना चाहिए लेकिन अगर हम जनता एकजुट हो व्यवस्था में बैठे लोगों के भ्रष्टाचार और कुकर्मों को लगातार आवाज उठाकर उस पर कार्यवाही की मांग करें तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी मजबूर हो जायेंगे कार्यवाही के लिए | असल समस्या है हम लोग इस काम के लिए अपना समय और कुछ रुपया भी खर्च करने को तैयार नहीं हैं और अपने-अपने स्वार्थ की लड़ाई में व्यस्त हैं जिससे जनहित की लड़ाई और व्यवस्था की निगरानी से हमसब दूर हो गए हैं | main is kathan se sahmat hoo }
ReplyDeleteआदरणीय अजित गुप्ताजी,
ReplyDeleteआपने अपने आलेख से अवगत करवाया इसके लिये और दो मुद्दों को लेकर आपकी ओर से प्रस्तुत की गयी विवेचनात्म्क विश्लेषण के लिये आभार और साधुवाद।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, मैं आगे कुछ लिखने से पूर्व स्पष्ट कर दूँ कि मैं भी विधि स्नातक नहीं हँू, लेकिन नाइंसाफी के बीहड में फंस जाने पर और वकीलों के विपक्षी पार्टी के हाथों बिक जाने के कारण; विवश होकर मैंने भी आप ही की तरह अपने प्रयासों से कानून का थोडा बहुत ज्ञान प्राप्त किया है। जिसके आधार पर अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा हँू। जरूरी नहीं कि मैं जो कुछ कहँू अन्तिम सत्य हो, हाँ अनुभव और व्यवहार के साथ-साथ संविधान के प्रकाश में कुछ बातें कहना जरूरी समझ रहा हँू। आशा है विचार प्रकट करने के मेरे अधिकार की आप रक्षा करेंगी :-
आदरणीय अजित गुप्ता जी, अधिकतर प्रतिक्रियाओं में आपको दोनों सुधारों के लिये समर्थन मिला है। जिसकी बडी वजह है कि आम और व्यवस्था से परेशान हर व्यक्ति हर उस सुधार या आशा की किरण का समर्थन (केवल कागजी या मौखिक) करने का तैयार है, जिससे उसे अन्याय के अन्धकार से प्रकाश की किरण में पदार्पण करने का प्रतिबिम्ब दिखाई देता हो।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, कुछ पाठकों की ओर से यह कह कर निराशा भी व्यक्ति की गयी है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। हमारे बुजर्गों ने हजारों वर्ष तक लगातार अगली पीढी को इस कहावत को प्रस्तुत करके बहुत सारी ऐसी बातों को हमें झेलने के लिये विवश कर दिया है। जिसके चलते हम आज भी बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे कहकर हार मान लेते हैं। मैंने विनम्रता पूर्वक इस कहावत को चुनौती मानकर इसे आगे बढाया है और मेरा मानना है कि आज हम न मात्र बिल्ली के गले में घंटी बांध सकते हैं, बल्कि बिल्ली को आसानी से पकड भी सकते हैं। यह कहवात हजारों वर्ष पूर्व तब बनी थी, जब कोई माता दूध को ठंडा करके दही जमाती थी और रात को बिल्ली आकर दूध या दही को चट कर जाती थी, जिसके चलते दूध/दही को केवल जानवरों को खिलाने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था। ऐसे में किसी समझदार बुजर्ग ने सुझाव दिया कि यदि बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जावे तो जैसे ही बिल्ली दूध/दही खाने आयेगी तो उसके गले में बंधी घंटी बजेगी और सबकी नींद खुल जायेगी और हम दूध/दही को खाने से बचा लेंगे, लेकिन फिर सवाल उठा कि बिल्ली जैसे चालाक जानवर के गले में घंटी कौन बांधे और बात वहीं पर समाप्त हो गयी और हजारों वर्ष से हम इस कहानी को यहीं पर अधूरा छोड रहे हैं। बिल्ली को दूध एवं दही के साथ-साथ सबकुछ चट करने की मौन सहमति देते रहे हैं
आदरणीय अजित गुप्ता जी, मैंने इस कहानी को विनम्रता पूर्वक आगे बढाने का प्रयास किया है। एक दिन दूध या दही में कम मात्रा में नशीली दवाई को मिल दो, जिससे बिल्ली केवल बेहोश हो सके और उसके स्वास्थ्य को किसी प्रकार की क्षति नहीं हो। बेहोश होने के बाद बिल्ली के गले में आसानी से घंटी बांधी जा सकती है और जब भी दूध या दही खाने बिल्ली आयेगी तो वह या तो पकडी जायेगी या भाग जायेगी, लेकिन दूध और दही के साथ-साथ सभी खाने-पीने की चीजें सुरक्षित रहेगी। खैर न तो आजकल बिल्ली को दूध-दही मिलता है और न हीं लोगों को बिल्ली के गले में घंटी बांधने की जरूरत है। चूंकि ये निराशावादी कहावत प्रचलन में है, जिसे विराम देने के लिये मैंने कहानी को आगे बढाया है। आशा है मेरी इस अनपेक्षित चर्चा को आप अन्यथा नहीं लेंगी।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, अब मुद्दे की बात पर आते हैं। सबसे पहले मैं आपके दूसरे सुधारवादी बिन्दु पर अपनी प्रतिक्रिया देना चाहूँगा। जिस प्रकार आज समय के साथ-साथ दूध, दही, बिल्ली और दूध की मालकिन भी बदल गयी हैं, उसी प्रकार से आज गाँवों में पंच पटेल भी बदल चुके हैं। यदि आज ग्राम पंचायतों को वर्तमान या आदिकालीन किसी भी स्वरूप में न्याय की शक्तियाँ पंचायतों को प्रदान कर दी गयी तो वहाँ पर न्याय के अलावा सब कुछ होगा।
ReplyDeleteआदरणीय अजित गुप्ता जी, आपको मेरी ऐसी टिप्पणी अजीब जरूर लगेगी, लेकिन मैं भी २५-३० वर्ष पहले तक आपकी ही तरह से सोचता था। लेकिन अब जबकि पंचायतों का सारा परिदृश्य ही बदल गया है तो पंचायतों के हाथों में न्याय प्रदान करने के अधिकार को सौंपने का समर्थन कैसे किया जा सकता है?
आदरणीय अजित गुप्ता जी, मुझे नहीं पता आपको वर्तमान ग्रामीण परिवेश का कितना ज्ञान है, लेकिन मैं गाँवों से ही हँू, लगातार वहाँ के हालातों से वाकिफ भी रहता हँू और एक-एक बात को बारीकी से देखता और अनुभव करता रहता हँू। २५-३० वर्ष पूर्व गाँवों में सरपंच अपनी जेब से लोगों को नाश्ता करवाकर खुश होता था, जबकि आज के अधिसंख्य सरपंच लोगों के मुंह से निवाला निकालकर खा जाने के नये-नये तरीके ईजाद करते रहते हैं। नरेगा में पंचायतों की सारी असलियत सामने आ गयी है।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, अब आपके पहले सुझाव की ओर आते हैं। यह सही है कि बहुत सारे अंग्रेजों के जमाने के कानून अभी भी इस देश में वाकायदा लागू हैं। जिसके कारण आपके लिखे अनुसार सांसद एवं लोक सेवक दण्ड से बच निकलते हैं। मैं भी मानता हँू कि न्याय का आधार और साक्ष्य की पूरी प्रक्रिया को संचालित करने वाला साक्ष्य अधिनियम १८६० आज भी प्रचलन में है। ऐसे सैकडों कानून प्रचलन में हैं। परन्तु ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के बनाये कानूनों की सभी असंगत, अन्यायपूर्ण और विभेद करने वाली बातें/प्रावधान आज भी मान्य और स्वीकार्य हैं?
आदरणीय अजित गुप्ता जी, आपने जागरूकता की बात कहीं है। इसलिये कह सकता हँू कि कानून से अनजान व्यक्ति के लिये तो यह मानने लायक बात है कि अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण कानून आज भी इस देश में लागू हैं, लेकिन जैसा कि आपने लिखा है कि थोडी-थोडी जानकारी हासिल करके प्रत्येक व्यक्ति जागरूक बन सकता है। यदि हम आपकी इस बात पर सभी भारतीय अमल करें और साथ ही कम से कम एक और भारतीय को जागरूक बनाने का प्रयास करें तो जागरूकता पैदा करना असम्भव नहीं है।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, मैं विनम्रतापूर्वक को आपको एवं सभी पाठकों को अवगत करवाना चाहता हँू कि हमारे संविधान के निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी एवं विद्वान व्यक्तित्व थे। जिन्होंने अंग्रेजों का राज और अन्याय देखा था और आजादी की लडाई में प्रताडनाएँ भी झेली थी। ऐसे में उनसे ऐसी कैसे अपेक्षा की जा सकती थी कि वे अंग्रेजों के विभेदकारी कानूनों को भारतीयों पर अत्याचार करने के लिये ज्यों का त्यों जिन्दा रहने देते।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, उपरोक्त स्थिति को ध्यान में रखकर संविधान में साफ तौर पर व्यवस्था की गयी है कि संविधान के लागू होने से पूर्व में निर्मित ऐसा कोई भी कानून चाहे वह अंग्रेजों द्वारा निर्मित हो या किसी धार्मिकता पर आधारित हो, जैसे मनुस्मृति, यदि भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों के विपरीत है तो शून्य माना जायेगा। कृपया देखें संविधान का अनुच्छेद १३ (१)।
ReplyDeleteआदरणीय अजित गुप्ता जी, केवल इतना ही नहीं संविधान निर्माताओं को उसी समय आशंका थी कि संविधान लागू होने के बाद भी मनमाने और भेदभावपूर्ण कानून बनाकर लागू किये जा सकते हैं। इसलिये उन्होंने अनुच्छेद १३ के उप अनुच्छेद (२) में पहले से ही यह प्रावधान भी कर दिया है कि संविधान लागू होने के बाद भी ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जायेगा जो संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का हनन करता हो या उन्हें कम करता हो और यदि बनाया भी दिया गया तो ऐसा कानून उस सीमा तक शून्य होगा, जिस सीमा तक वह मूल अधिकारों का हनन करता होगा या उनको कम करता होगा।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, इतना ही नहीं, यदि कोई असंवैधानिक कानून किसी सरकार द्वारा बना कर लागू कर दिया गया गया है या संविधान लागू होने से पूर्व बने कानून के असंवैधानिक प्रावधान वर्तमान में प्रचलन में हैं तो उन्हें किसी भी उच्च न्यायालय में अनुच्छेद २२६ के तहत और, या सीधे उच्चतम न्यायालय में अनुच्छेद ३२ के तहत चुनौती दी जाकर असंवैधानिक और, या शून्य घोषित करवाया जा सकता है। सैकडों बार न्यायालयों द्वारा ऐसा किया भी जा चुका है। कुछ समय पूर्व ही देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि भ्रष्टाचार में लिप्त लोक सेवकों के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिये किसी भी प्रकार की पूर्वानुमति की जरूरत नहीं है। आप जानती ही होंगी कि लोक सेवक की परिधि में कौन-कौन हैं।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, सबसे बडी समस्या यह है कि हम इतने निकम्मे और सुविधा भोगी हो गये हैं, कि हम स्वयं कुछ भी नहीं करना चाहते। हमारी लडाई कोई और लडे तो ही अच्छा लगता है। हम चाहते हैं कि इस देश में भगत सिंह जैसे पुत्र पैदा हों, लेकिन अपने घर में नहीं, बल्कि पडौसी के घर में। सबसे दुःखद तो ये भी है कि जो लोग नाइंसाफी के विरुद्ध लड रहे हैं, उन्हें भी हम सहयोग नहीं करना चाहते। अन्यथा जनता के सामने प्रशासन या सरकार की मनमानी कहीं नहीं टिक सकती। यदि देश का हर व्यक्ति केवल १ रुपया प्रतिवर्ष भी न्याय प्राप्ति के नाम पर बचत करके एक संगठन को अपनी ओर से लडने के लिये अधिकृत कर दे तो करीब ७०-८० प्रतिशत व्यवस्थागत खामियाँ तो न्यायालयों एवं सूचना का अधिकार अधिनिमय के जरिये ही हल की जा सकती हैं।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, एक बात और कि जो लोकपाल विधेयक का मामला है, इसे भी आप कोई पवित्र विचार नहीं माने, इसके पीछे भी कुटिल जाल है। यह भी अपने बचाव का तरीका ईजाद किया गया है!
आदरणीय अजित गुप्ता जी, मेरा तो सीधा सावल है कि संविधान का अनुच्छेद १४ साफ शब्दों में कहता है कि इस देश में सभी को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा। इस प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट ने अनेक बार विवेचना की है और हर बार एक ही बात कही है कि कानून के समक्ष सब समान हैं और सभी को कानून का एक समान संरक्षण देना सरकार का बाध्यकारी दायित्व है।
ReplyDeleteआदरणीय अजित गुप्ता जी, इसके साथ यह कह कर मैं अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि संविधान का उल्लंधन करने वाले कानूनों को चुनौती दिये जाने पर, उन्हें असंवैधानिक घोषित करना न्यायपालिका का भी बाध्यकारी दायित्व है।
आदरणीय अजित गुप्ता जी, आपने मुझे अपने आलेख को लिंक भेजकर विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया, इसके लिये आपका हृदय से आभारी हँू। शुभकमानाओं सहित।
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लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश') जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें तक 4399 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे)। Email : dr.purushottammeena@yahoo.in
आपने एक बहुत ही जरुरी विषेय की और सब का ध्यान आकर्षित किया है यह विषेय बहुत महत्पुरण है की आखिर कब हम में से कोई आगे आकर इस पूरी व्यवस्था को बदलने के लिए कोई कदम उठाना आरम्भ करेगा और शायद जब तक कोई व्यक्ति पहल न करे इस समस्या का समाधान भी नहीं हो पायेगा हम सब को अब इस समस्या का समाधान करने के लिए खुल कर आगे आने की आवश्यकता है
ReplyDeleteमेरे खयालसे इस पोस्ट का यही तात्पर्य हैं की , हमें हमारी पुराने भारतवर्ष से कुछ बाते अभ्यास करके सिख लेनी चाहिए. ये बात सच हैं हमारी पुरानी समाज व्यवस्था,शिक्षण प्रणाली और बहुत सारी बाते काफी अच्छी थी. जो इस्लाम और ब्रिटिश आक्रमण के कारन भ्रष्ट और नष्ट होगई. और ये भी सच हैं की १९४७ में जब हमें आज़ादी मिली तब हमने अंग्रेजो के शासन कल की बहुत सारी बाते, उसमे थोडा बहुत परिवर्तन करके ज्यो की त्यों रख दी. बल्कि उस वक्त से कुछ पुरानी अच्छी बातों को वापस लाने का प्रयास करना चाहिए था. लेकिन यह हो न सका, या तो फिर करना जरुरी नहीं समझा. लेकिन इसका ये मतलब नहीं की हमारी पुरानी व्यवस्था और शिक्षण प्रणाली ख़राब थी. यह सच हैं की वह आजसे बेहतर थी. जिन लोगोंको हमारी पुरानी कुछ बातों के बारे में जाना हैं, वे गूगल में 'धरमपाल' लिखके सर्च करे या फिर 'धरमपाल.नेट' साईट पे जाके 'पब्लिश वर्क' पे जाके, सब Document डाउनलोड करे और पढ़े. थोडा वक़्त लगेगा, लेकिन सचमुच पढ़ने जैसा है. हमारी Ancient इंडियन सिस्टम कितनी अच्छी थी उसका यह सबूत हैं.
ReplyDeletei am not able to use hindi fonts here so excuse me for writing in english. There is no difference between Lalu,Nitish or Mulayam. It is the public which needs to be educated. The first step for removing corruption/blackmoney is to ban all 500 and 1000 rupee notes and encourage transactions thro' banks only. Every corrupt officer/minister is found embezzling thousands of crores. It is rumoured that about 72lakhs crores of rupees are deposited with swiss banks by corrupt ministers/high officials. Common man has no approach to swiss bank. Dust accumulates more at the top and who will clear that dust? Our laws are insufficient and ineffective to catch the culprits.
ReplyDeleteOur young generation is forced to seek jobs and education in other countries because of lack of opportunities in our own country. Who likes to leave his family/ relations and live in alien country? Till Lalus,nitish, mulayam, mayawati like people are ruling the country, nothing good will come out for general public.
Are british people responsible for adulteration in all food items,generation of black money thro' corruption, hoarding, mismanagement, etc.etc. For all the ills of today's India, the present Rulers are responsible. Public should learn to vote for right people and not be swayed by false propagandas.