रात गहराती जा रही थी। सड़क कब से सुनसान पड़ी थी। एक पीपल का पेड़ था जो बड़े से एक चबूतरे से मढ़ा था। उस चबूतरे पर हम तीन महिलाएं, अपनी ही दुनिया में मस्त बस हँसती जा रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह हँसी आज ही परवान चढ़ जाएगी। एक महिला कुछ बात कहती और शेष दो ठहाका लगा देती। तभी धीरे से दबे पाँव कोई हमारे पास आकर सहमा सा खड़ा हो गया। मेरी निगाहे उस पर टिक गयीं। डर के मारे उसके बोल नहीं फूट रहे थे। महिलाओं ने उसकी हालात देखी और हँसी का फव्वारा फूट चला। पलक झपकते ही माजरा समझ आ गया। लड़का डरा हुआ था, इतनी रात को पीपल के पेड़ के नीचे अट्टहास करती महिलाओं को देखकर। मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी को दबाया और बोली कि डरो मत, हम केवल तीन नहीं हैं, हमारे तीन साथी अन्दर हैं। लड़के का डर समाप्त होने के स्थान पर बढ़ गया, वह वहाँ से खिसक लिया और सड़क किनारे अपनी मोटर-सायकिल और अपने दोस्त के साथ जा खड़ा हुआ। तभी एक और मोटर-सायकिल आकर रुकी, उन चारों ने हम पर टार्च का प्रकाश डाला। हम फिर हँस दिए। वे सरपट भाग गए।
यह कोई जासूसी उपन्यास की कथा नहीं हैं, अपितु मेरी आप-बीती घटना है। कई वर्ष हो गए इस घटना को घटे। हम तीन दम्पत्ति बीकानेर से उदयपुर के लिए कोंटेसा कार में शाम को रवाना हुए। शहर से बाहर निकलते-निकलते शाम ढलने लगी थी। रास्ता बहुत लम्बा और एकान्त वाला था। लेकिन डर कहीं नहीं था। अभी कुछ ही देर चले थे कि गाड़ी ने जवाब दे दिया। तब तक रात भी घिर आयी थी। बस एक काली टूटी-फूटी सी सड़क थी और दोनों तरफ रेत के टीले। मेरा बचपन रेत के टीलों के बीच बीता है तो उन्हें देखते ही मन मचलने लगा। जैसे ही हमें सुनायी दिया कि गाड़ी खराब हो गयी है हम तीनों महिलाएं दौड़कर टीलों पर जा बैठे। कुछ देर बाद ही गाँव के दो-चार लोग भी एकत्र हो गए और हमें कहा गया कि गाड़ी को नजदीक के गाँव में ले जाना पड़ेगा। हमें एक ट्रेक्टर पर बैठने को कहा गया। जीवन में कभी भी ट्रेक्टर पर नहीं बैठे थे तो बड़ा डर लगा, लेकिन जैसे-तैसे लटकते-पड़ते बैठकर हम गाँव तक जा पहुंचे। गाड़ी भी ठीक हो गयी और हम अपने सफर पर चल दिए।
लेकिन यह क्या, अभी एकाध घण्टे भी गाडी नहीं चली थी कि वो फिर बोल गयी। अब क्या किया जाए। रात काफी हो चली थी। कोई भी व्यक्ति दिखायी नहीं दे रहा था और सड़क एकदम सुनसान थी। बहुत देर इंतजार करने के बाद एक व्यक्ति दिखायी दिया और उसने बताया कि पास ही एक गेराज है, वहाँ गाडी को ले जाओ। हमने जैसे-तैसे गाडी को गेराज तक पहुंचाया। तीनों पुरुष गाडी के साथ गेराज में चले गए और हम महिलाओं ने अपना अड्डा उस पीपल के पेड़ के नीचे जमा लिया। मेरी आदत गप्प मारने की कुछ ज्यादा ही है तो हम तो शुरू हो गए। समय पंख लगाकर उड़ने लगा और रात कब मध्य-रात्रि में बदल गयी पता ही नहीं चला। और वे बेचारे लड़के हमें चुडै़ल समझकर डरकर भाग गए। शायद आज भी उस गाँव में हमारा खौफ मौजूद हो?
रात बारह बजे बाद हमारे साथी गाडी को दुरस्त करके बाहर निकले, हमने तब खाना खाया और फिर हमारी छकड़ा गाडी चल दी। लेकिन उस गाडी को नहीं चलना था तो नहीं चली। कुछ दूर जाकर ही फिर अड़ गयी। रात के दो बजे हम कहीं आसरा ढूंढ रहे थे, देखा सामने एक स्कूल खड़ा है। खुशी-खुशी दरवाजे तक गए लेकिन वहाँ ताला लगा था। अन्दर कैसे जाएं? लेकिन एक टीले ने हमारी मदद की। वो टीला स्कूल की दीवार के सहारे अपना वजूद लिए खड़ा था। हम उस पर चढ़ गए और दीवार कूद गए। गाडी में एक दरी भी मिल गयी और हम स्कूल के प्रांगण को सुख-शैय्या समझकर गहरी नींद में सो गए। जैसे ही सूरज ने दस्तक दी, हमारा एकान्त भाग गया। सामने ही चाय की दुकान दिखायी दे गयी। हम सबने चाय पी और गाडी को धक्का लगाकर चलाने का प्रयास किया। गाडी चल दी, लेकिन जैसे ही ब्रेक लगाए वो फिर बन्द हो गयी। हमने गाँव वालों से प्रार्थना की कि आप धक्का लगा दीजिए, उन्होंने धक्का लगा दिया और गाडी भर्र से चल दी। गाडी तो लोगों के धक्के से चल दी लेकिन चाय वाले को पैसा तो दिया ही नहीं। अब क्या करें? गाडी रोक नहीं सकते। भगवान को उत्तरदायी बनाकर हम निश्चिंतता से आगे चल दिए। परीक्षा अभी बाकी थी। उस साल उस रेगिस्तान में भी बाढ़ आयी थी तो सड़के तो माशाअल्लाह थी ही, साथ में पानी के साथ नदी के गोल-गोल पत्थर भी रास्ते में आ गए थे। इतने में ही भेड़-बकरियों के झुण्ड ने हमारी गाडी को फिर रोक दिया। किससे धक्का लगवाएं? अब पुरुषों ने स्वयं ही धक्का लगाया और दौड़कर गाडी में बैठ गए। ऐसी प्रक्रिया कई बार करनी पड़ी और गाडी के फाटक भी हाथ में आने को तैयार हो गए। लेकिन विकट स्थिति तो तब पैदा हुई जब एक सूखी नदी रास्ते में आ गयी। उसके गोल-गोल पत्थरों से गाडी फिर रुक गयी। इस बार बोनट खोलकर जाँच कर ली गयी और धक्का लगाकर जैसे ही गाडी ने चार कदम बढ़ाए कि विपक्ष की तरह बोनट खुलकर तन गया। अब गाडी को रोके तो मुश्किल और ना रोके तो बोनट को कैसे नीचे बिठाए? एक साथी ने क्लच पर पैर रखा और एक साथी ने अपनी लम्बी टांगों को खिड़की से बाहर निकाला और जोर से पैर को बोनट पर पटक दिया। बोनट बन्द हो गया और गाडी भी नहीं रुकी। खुशी की लहर दौड गयी। दिन होते-होते इसी प्रकार गाडी से जूझते हुए हम नागौर पहुंचे और वहाँ उसे पक्की तौर पर ठीक कराने का प्रण लिया। कई घण्टे लगे, लगे तो लगे, लेकिन रात होने से पहले हम कम से कम जोधपुर तो पहुंच जाएं। विधाता ने चाय की कीमत वसूलने की ठान रखी थी। मण्डोर पहुंचते-पहुंचते तो हमारी गाडी ऐसी हो गयी थी कि उसे एक थैले में भरकर ले जाया जाए। चारों फाटक लटक चुके थे। मण्डोर पहुंचकर तो गाडी ने बिल्कुल ही हथियार डाल दिए। अब तो उसे दूसरी गाडी के सहारे खेचने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं था। जैसे-तैसे जोधपुर पहुंचे। एक मित्र के यहाँ गए, वे भी अचानक ही छ: लोगों को आया देख घबरा गए। उनकी पत्नी ने हँसकर स्वागत तो किया लेकिन दबे स्वर में बता भी दिया कि आज ही नौकर गाँव गया है। इतने लम्बे सफर के बाद भी हमारी जिन्दादिली में कोई कमी नहीं आयी थी। हमने उनसे हँसकर कहा कि आप चिन्ता ना करें। आपकी सहायता के लिए तीन पढ़ी-लिखी शहरी बाइयां आयी हैं। सब काम फटाफट निबटा देंगी। वे भी दिल खोलकर हँस दी और हमें बड़े ही प्यार से रात का खाना खिलाया। हमने बस की टिकट खरीदी और उदयपुर के लिए रवाना हो गए। जिन मित्र की गाडी थी, उन्हें अकेला छोड़कर। हाँ चाय वाले के पैसे मेरे पतिदेव ने आखिर भेज ही दिए। उनका एक रोगी उसी मार्ग पर ट्रक चलाता था तो उसने वह जगह पहचान ली और बाकायदा पैसे उस चाय वाले तक जा पहुंचे।
मैं अभी ऑफिस निकल ही रहा था कि ...आपकी यह पोस्ट देखी.... सोचा कि बाद में पढूंगा.... लेकिन शुरुआत ही हल्का सा पढ़ा था .... कि पूरा पढ़ के ही दम लिया.... ह्म्म्फ़...ह्म्मफ्फ्फ़..... एक सांस में पढ़ा हूँ.... ना.... इसलिए हांफ रहा हूँ... आपकी लेखनी को नमन .....आपने शुरू से लेकर अंत तक बाँध कर रखा.... इस संस्मरण में.... संस्मरण ऐसा ही होना चाहिए कि आदमी बंध जाए... मैं तो उस लड़के कि हालत सोच कर खूब हंस रहा हूँ.... थोडा और जोर से आप लोग हंस देते तो शायद बेचारे का हार्ट फेल ही हो गया होता... हा हा हा हा .... बहुत ही अच्छा संस्मरण....
ReplyDeleteरिगार्ड्स......
लाज़बाब संस्मरण है...वह यात्रा तो यादगार बन गयी...वो चुड़ैल समझा जाना.... दीवार फांद कर स्कूल के प्रांगण में सोना...चाय वाले को पैसे देना भूल जाना...और जबरदस्ती का मेहमान बनना...सचमुच..बहुत एन्जॉय किया आपने तो...हमने भी पढ़ कर बहुत एन्जॉय किया.
ReplyDeleteजीती जगती चुड़ैलों को देखकर किसी का हार्ट फेल नहीं हुआ ...ये क्या कम बड़ी बात हुई ...:):)
ReplyDeleteरोचक संसमरण ...!!
बहुत ही अच्छी कहानी ,बिलकुल चित्र सामने घूम रहा था.अच्छी कहानी .
ReplyDeleteविकास पाण्डेय
www.विचारो का दर्पण.blogspot.com
Oh! Maza aa gaya! Ek nahi do nahee...3/3 chudail..ha,ha,ah!
ReplyDeleteबेहद रोचक संस्मरण
ReplyDeleteमजा आया जी पढकर
प्रणाम
अरेआअप कहाँ से चुडैल लगी उन लडकों को शायद उसने शहर की औरतें पहले ना देखी हों हा हा हा। बहुत अच्छा लगा आपका संस्मरण कुछ पल हंसने के लिये बहुत अच्छी बात। शुभकामनायें
ReplyDeleteगज़ब का संस्मरण।
ReplyDeleteठहाके लगाने वाले भूत !
क्या बात है।
वैसे वो विंटेज कार आजकल कहाँ है ?
दराल जी, आपकी विंटेज कार वाली बात ने बहुत हँसाया। सच वो विंटेज कार ही थी। मैंने भी बहुत ढूंढी पर मिली नहीं। हमारे मित्र उसे कहीं से मांग कर लाए थे आपातकाल में। क्योंकि उन्होंने पहले एक अन्य विंटेज कार हमें बतायी थी यात्रा के लिए लेकिन वो तो जाते समय ही दरवाजे पर ही अड़ गयी। उसकी जगह यह आनन-फानन में लायी गयी। आपकी बात से ध्यान आ रहा है कि इस प्रकरण को भी संस्मरण में शामिल करना चाहिए था। लेकिन लम्बा होने के डर से कई बातों पर पर्दा डाल दिया गया।
ReplyDeleteबडा ही रोचक किस्सा रहा और आपकी लेखन शैली ने इसको और रोचक बना दिया.
ReplyDeleteरामराम.
रोचक संस्मरण!
ReplyDeleteनारी-दिवस पर मातृ-शक्ति को नमन!
Aaj kya likha hai aapne.. ma'am likha nahin sammohan kiya hai.. :)
ReplyDeleteJai Hind...
हा हा बहुत बढ़िया संसमरण... क्या शानदार यात्रा रही छकड़ा गाड़ी से..
ReplyDeleteनिवेश पर अधिकतम रिटर्न की गारंटी, पर फ़िर भी अच्छे रिटर्न नहीं दे पातीं बीमा कंपनियाँ क्यों...? (Return guaranteed highest NAV, but why Insurance Companies not gives best returns.. )
मन मे जब डर हो तो रात के अंधेरे मे पेड़ भी भूत-प्रेत से कम नज़र नही आते।मज़ेदार किस्सा और अपने समय की सबसे खूबसुरत कर कोंटेसा सच मे अब विंटेज हो गई है।मैने भी काफ़ी समय तक़ टाटा की सियेरा चलाई है।बेहद खूबसूरत और पीछे खूब बड़े शीशों वाली कार चलने में भी बहुत अच्छी और कम्फ़र्टेबल थी।उससे मैंने तिरूपती यात्रा भी की थी मगर जैसे-जैसे नई कारें आती गई उसके दो दरवाजे होने की वजह से पीछे बैठने वालों को होने वाली तक़लीफ़ ने उसे मार्केट से आऊट कर दिया और मैने भी।आज भी उसे देखता हूं तो चलाने की इच्छा होती है वो मेरी पसंदीदा कार है मगर क्या करें मार्केट का ज़माना है।वैसे ये नई कारें भी कभी-कभी बहुत तक़लीफ़ देती है,मुझे भी हुई है लिखूंगा किसी दिन आपने तो प्रेरना दे ही दी है।
ReplyDeleteएकदम गजब्बे का लिखी हैं आप तो.. :)
ReplyDeleteआपको ये कहते हुए देखा कि आप ने बहुत बढ़िया पोस्ट लगाई परन्तु आपसी विवाद के नाते किसी ने उसपर ध्यान नहीं दिया , मुझे दुःख हुआ इस बात का । सच में आपने बहुत बढ़िया संस्मरण लिखा है , शायद संस्मरण के मायने भी यही होते है , बहुतो को मैंने देखा है संस्मरण के नाम पर ना जांने क्या लिख देते है , खैर आपकी प्रस्तुति लाजवाब रही ।
ReplyDeleteवाकई आपके इस वृतांत को मैंने एक ही लाइन पढ़ा लेकिन फिर पूरा पढ़े बिना रहा नहीं गया। बहुत ही अच्छा और बांधकर रखने वाला विवरण है। इस तरह के वाकये जीवन में तो यादगार होते ही हैं हमें भी यादगार लम्हे दे जाते हैं। बहुत मजा आया पढ़कर। इसे पढ़ते हुए मेरे मन मस्तिष्क में पूरा दृश्य चित्रांकित हो रहा है। आपसे अनुरोध है कि जब भी आप कुछ लिखें तो कृपया उसका एक लिंक अवश्य भेजने का कष्ट करें। मेरा ईमेल आईडी है anil4pandey@gmail.com धन्यवाद।
ReplyDeleteचुड़ैल समझकर भागने वाले संस्मरण से ज्यादा मजा तो उस विंटेज कर के बोनट को बंद करने में जो प्राणायाम किया होगा उसे सोच कर आया. उस कमाल की गाडी में वो आपकी यात्रा अविस्मर्णीय ही रही होगी.
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