दिनांक 20 फरवरी को हमारी गाड़ी ग्वालियर की सड़कों से होती हुई एक पहाड़ी पर चढ़ने लगी। एक सुदृढ़ किले की दीवारे दिखायी देने लगी और उन दीवारों पर बनी हुई जैन तीर्थंकरों की खंडित प्रतिमाएं हमारे मन में वेदना जगाने लगी। हम क्यों इतने असहिष्णु हो जाते हैं कि दूसरों की आस्था को खण्डित कर देते हैं? एक कलाकार अपनी कला का माध्यम मूर्तिकला को जीवन्त करके सिद्ध करता है और कुछ आततायी धर्मांध होकर उस कला पर ही अपना हथोड़ा चला देते हैं। लेकिन मन विचलित होता इससे पूर्व मजबूत किले की दीवारे हमारे सामने थी। शाम का धुंधलका फैल चुका था और किले के पट बन्द हो चुके थे। अन्दर जाना नामुमकिन था लेकिन हमें पता था कि अभी लाइट एण्ड साउण्ड का कार्यक्रम होगा और यहाँ का इतिहास जीवन्त हो उठेगा।
अमिताभ बच्चन की आवाज में इतिहास के पन्नों की गरज हमारे कानों को सुनायी देने लगी। कभी घोड़ों की टापों की आवाज आती और कभी संगीत की स्वर लहरियां वातावरण में गूंज जाती। गालव ॠषि की तपोभूमि पर राजा सूरज सेन का आगमन उनका कुष्ट रोग का निवारण और फिर गालव ॠषि के नाम पर ही ग्वालियर के निर्माण का इतिहास सुनायी देता रहा। राजा मानसिंह और मृगनयनी के प्रेम के किस्से भी सुनायी दिए और उन द्वारा बनाया गया महल पर भी रोशनी डाली गयी। जब तानसेन की स्वर-लहरियां वातावरण का सरस बना रही थी तभी आतताइयों ने किले के जीवन को समाप्त कर दिया और विशाल और भव्य किले को कैदखाने में बदल दिया। जिस किले की नीचले भाग में रानी मृगनयनी और राजा मानसिंह का प्रेम परवान चढ़ा था जिसे वृन्दावन लाल वर्मा ने अपनी लेखनी से हम तक पहुंचाया था उसी किले में न जाने कितने लोगों को तहखाने में फाँसी पर लटका दिया गया और न जाने कितने लोगों को विवश मरने के लिए छोड़ दिया गया। सिखों के छठे गुरु हर गोविन्द साहब भी इस कैदखाने में बन्द रहे लेकिन जहागीर की कृपा से वे छूट गए और उनका दामन पकड़कर 51 अन्य कैदी भी मुक्त हुए। उन्हीं की स्मृति में वहाँ गुरुद्वारा भी बना है।
महाराष्ट्र के सतारा जिले से आए सिंधिया परिवार ने फिर से ग्वालियर की गद्दी की सम्भाला और एक नवीन ग्वालियर जनता को दिया। अन्य भारतीय शहरों की तरह ग्वालियर के भी दो स्वरूप हैं – एक वही पुरातन स्वरूप जो तीन भागों में विभक्त है एक कण्टोंमेंट दूसरा लश्कर और तीसरा मुरार। और अब नवीन ग्वालियर बड़ी-बड़ी मॉल और शॉपिंग सेंटरस की चकाचौंध लिए खड़ा है। शहर में वही ठेलों की रेलपेल है, सवारियों को ढोते टेम्पों हैं जो कहीं से भी घुसकर अपना रास्ते बना लेते हैं। वही रेलवे स्टेशन और वही बस स्टेण्ड। ग्वालियर में देखने को कई स्थान हैं लेकिन मीटिंग की व्यस्त दिनचर्या में इतना ही देखा जा सका। हमारे मेजबान श्रेष्ठ थे या फिर ग्वालियर की परम्परा ही है कि आतिथ्य सत्कार पूरा होता है। स्वादिष्ट भोजन के साथ स्वादिष्ट चाट भी परोसी गयी। तीन दिन ग्वालियर आँखों और मन में बसा रहा फिर ट्रेन ने कहा कि आज आप हमारे मेहमान है आपकी सीट हमारे यहाँ आरक्षित है तो चले आइए, कल पर भरोसा मत कीजिए। हम केवल वर्तमान में ही यात्रियों को ससम्मान उनके गंतव्य तक पहुंचाते हैं और हम भी ग्वालियर से चले आए वापस अपनी दुनिया में। अपनी ब्लाग की दुनिया में अपनी लेखकीय दुनिया में।
बढ़िया लगा संस्मरण पढ़कर ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा अपने ग्वालियर यात्रा का संस्मरण, पुन: यहां आपको पाकर प्रसन्नता होरही है. आपकी अनुपस्थिति मे हमने यहां कोई उत्पात नही होने दिया.:)इस बात का इनाम मिलना चाहिये.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुंदर लिखा अपने ग्वालियर यात्रा का संस्मरण, पुन: यहां आपको पाकर प्रसन्नता होरही है. आपकी अनुपस्थिति मे हमने यहां कोई उत्पात नही होने दिया.:)इस बात का इनाम मिलना चाहिये.
ReplyDeleteरामराम.
ताउजी, ईनाम के रूप में हमने आपकी पोस्ट पर एक टिप्प्णी लिख दी है। वैसे आपके रहते किस की हिम्मत होती?
ReplyDeleteग्वालियर का किला दिखाने और इतनी अच्छी जानकारी देने के लिये धन्यवाद!
ReplyDelete"जिस किले की नीचले भाग में रानी मृगनयनी और राजा मानसिंह का प्रेम परवान चढ़ा था जिसे वृन्दावन लाल वर्मा ने अपनी लेखनी से हम तक पहुंचाया था ..."
आपने तो हमें अपने स्कूल के दिनों की याद दिला दी जब हम पुस्तकालय से लाकर वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास बड़े चाव से पढ़ा करते थे।
बहुत ही सुन्दर यात्रा संस्मरण है...
ReplyDeleteअगली बार कुछ और भी बताइयेगा ग्वालियर के बारे में.
ReplyDeleteनमस्ते डॉ. अजित जी मैं भी ग्वालियर की ही हूँ. बचपन से ही वही पली बढ़ी हूँ .ग्वालियर किले की वर्तमान अवस्था देखकर मन में बहुत दुःख होता हैं .वास्तव में किला कितना बड़ा और भव्य हैं ,उसको अगर सम्हाला जाये तो एक बहुत ही सुंदर और विशाल पुरात्तविक धरोहर हमारे पास जिवंत हो सकती हैं . अच्छा लगा, ऐसा लगा कुछ पलो के लिए मैं ग्वालियर में ही वापस पहुँच गयी हूँ .धन्यवाद .अरे हाँ आपने किले मैं राइ नदी देखी की नहीं?वही नदी जिसका पाणी रानी मृगनयनी पीती थी .
ReplyDeleteराधिका जी, मैंने मृगनयनी की तीन प्रतिज्ञाओं के बारे में नहीं लिखा था कि उसकी एक प्रतिज्ञा थी कि मेरे गाँव का पानी महल तक आना चाहिए। इसी कारण मानसिंह ने उसका महल तलघर में बनाया और पानी उपलब्ध कराया। लेकिन उस समय किला बन्द होने के कारण हम किले के अन्दर नहीं जा सके।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर यात्रा संस्मरण है..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका यात्रा संस्मरण मगर अजित जी ये गवालियर की चाट देख कर मुँह मे पानी आ गया---- शुभकामनायें
ReplyDeletesabse pahle to aap sakuchal wapis aagyi iske liye aapka swaagat hai..aur aate saath is dhamakedaar past ke liye aapka hriday se dhanyawaad..
ReplyDeletebahut hi sundar yaatra sansmaran likha hai aapne...aapki lekhan shaili to bas qaatil hi hai..
aabhaar..
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ये लेख .....
ReplyDeletekila to kila hi hae, kintu gwalior men rahna hi bhyank lagta hae, mae do vrsh whan thi roj ka aphrn,mara mari ek bhyank sthiti ka janm deti hae,kintu aapki yatra safl rahi bdhayi.....
ReplyDeletekila to kila hi hae, kintu gwalior men rahna hi bhyank lagta hae, mae 2 vrsh whan thi roj ka aphrn,mara mari ek bhyank sthiti ka janm deti hae,kintu aapki yatra safl rahi bdhayi.....
ReplyDeleteग्वालियर किले की अच्छी यात्रा करवाई आपने।
ReplyDeleteआपके लेखन में प्रवाह अच्छा है।
बहुत अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
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