अभी 29 नवम्बर को एक विवाह में सम्मिलित होने भोपाल गए थे। समधियों के यहाँ लड़की की शादी थी। बारात बंगाली परिवार की थी। बारात शाम को पाँच बजे आने वाली थी तो हम सब दरवाजे पर उनके स्वागत के लिए आ खड़े हुए। मुझे किसी काम से दो मिनट के लिए पण्डाल में जाना पड़ा तो सोचा कि अभी तो बारात आएगी, नाच-गाने चलेंगे। लेकिन मैं दो मिनट में ही जब वापस आयी तो सुना कि बारात आ गयी। और यह क्या? ना बाजे और ना पटाखे। कुल दस लोग गाड़ियों में बैठकर दूल्हे के साथ आए। ना घोड़ी आयी, ना तोरण हुआ बस दूल्हा को तिलक लगाकर अन्दर ले लिया गया। आनन-फानन में ही सब हो गया। दूल्हा बंगाली वेशभूषा में था, धोती और कुर्ता, सर पर कलाकारी वाला लम्बा मुकुट। दूल्हा पण्डाल में आते ही सीधे मण्डप में बैठ गया और पण्डितजी ने मंत्रोचार प्रारम्भ कर दिए। कुछ ही देर में दुल्हन को चौकी पर बिठाकर चार भाई लेकर आए और दूल्हे के चारों तरफ घूमकर सात फेर लिए गए। फिर दोबार दूल्हें ने कपड़े बदले और नया धोती कुर्ता और नया ही सर पर मुकुट पहन लिया। कन्यादान और फेरों की रस्म पूरे दो घण्टे और चली। बहुत ही सादगी के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। इस पोस्ट लिखने का कारण इतना भर है कि हमारे यहाँ विवाह में इतनी लम्बी बारात आती है और घोड़ी, बाजे, नाच, पटाखे इतने सब कुछ होते हैं कि लगता है कोई लाव-लश्कर आ रहा है। शायद यही परम्परा भी है कि हम लड़की को जीत कर ले जाते हैं इसलिए दरवाजे पर आते ही तोरण मारा जाता है। एक तरफ लड़की को जीतकर ले जाने की परम्परा है तो दूसरी तरफ इस बंगाली शादी में जीतने का भाव नहीं था। दूसरी बात जो मुझे हमेशा अखरती है कि आजकल लड़के वाले लड़की वालों को अपने शहर में बुलाकर विवाह करते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम लड़के वालों को लड़की सौंपने जा रहे हों। इसमें ना तो लड़की जीतने का भाव है और ना ही सात्विक पाणिग्रहण का। लड़के का पिता जो पूर्व में बारात लेकर आता था, अब वह भी लड़की वालों के द्वारा किए खर्चे पर ही अपना रिसेप्सन कर डालता है और दरवाजे पर आकर अपने रिश्तेदारों और परिचितों से लिफाफे लेकर घन्य हुआ जाता है।
हम कहते हैं कि शिक्षा के बाद लड़कियों में सम्मान आएगा लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा हुआ है। शिक्षा के बाद लड़कियों में भी व्यापारिक भाव आ गया है। वह भी विरोध नहीं करती कि हम लड़के वाले के शहर में जाकर शादी नहीं करेंगे। लेकिन बंगाली समाज यदि विवाह की स्वस्थ परम्परा को निभा रहा है यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। लड़के वालों की तरफ से इतनी सादगी थी, कोई नखरा नहीं था, बस मन श्रद्धा से झुक गया। काश हम भी ऐसी ही शादियों की पहल करें।
बहुत सुन्दर उदाहरण है यह बंगाली विवाह! यदि सभी लोग इसका अनुसरण करें तो कितना अच्छा होगा!
ReplyDeleteबंगाली विवाह के माध्यम से सादगी का सन्देश !
ReplyDeleteअजित जी,
ReplyDeleteआपको एक मज़ेदार किस्सा सुनाता हूं...मेरठ में एक बंगाली सहपाठिन की बहन की शादी थी...उसी वक्त अमृतसर से मेरा एक रिश्तेदार भी आया हुआ था...मैं पहले खुद भी कभी किसी बंगाली विवाह समारोह में नहीं गया था, अमृतसर से आए रिश्तेदार का तो सवाल ही नहीं था...मैं रिश्तेदार को भी समारोह में साथ ले गया...अब वहां जब दूल्हे के आने पर दुल्हन को चौकी पर बिठा कर लाया जा रहा था तो वहां बंगाली रस्म के अनुसार लड़की वालों ने ज़ोर ज़ोर से हू...हू..हू.....की आवाज़ें निकालना शुरू कर दिया...मेरे लिए भी ये अलग अनुभव था...अमृतसर से आए रिश्तेदार का चेहरा देखने लायक था...फिर वो मेरे से धीरे से बोला...ए माई, केड़े भूता दे डेरे विच लै आया ए मैणू....(ये कौन से भूतों के डेरे में ले आया है मुझे)...
जय हिंद...
खुशदीप जी
ReplyDeleteहम विवाह समारोह में यही सोच रहे थे कि यदि यहाँ कोई पंजाबी हो और बिना नाच के विवाह देखे तो वह तो क्या कहेगा? हू हू की आवाज वे लोग शंख से बजाते हैं।
पहले बहुत कम दूरी वाले जगहों में विवाह होते थे .. साथ ही लोगों के पास समय की कमी नहीं थी .. मस्ती करने के यही सब बहाने थे .. इसलिए बारात जाने आने और विवाह के पश्चात् भोज देने की प्रथा बनी हुई थी .. जहां विवाह की तैयारी के लिए लडकीवालों के यहां रिश्तेदार पहले पहुंच जाते थे .. और विदाई के बाद एक दो दिनों के अंदर घर खाली हो जाता था .. वहीं लडके के यहां रिश्तेदार देर से पहुंचते थे .. और वधू के आने के बाद उससे हिलमिलकर ही वापस जाते थे .. अब इतना समय और व्यर्थ का पैसा लोगों के पास नहीं .. इसलिए लडकेवालों के शहर में जाकर विवाह करने में मुझे ऐसी कोई आपत्ति नहीं दिखती .. पर बंगाली विवाह की तरह ही सब समुदायों में सादगी तो अनुकरण की जा सकती है .. आनेवाले समय में इसकी आवश्यकता और बढ जाएगी !!
ReplyDeleteलम्बे समय बाद आपसे रूबरू हुई, कुछ ताजा हो आया. सादगी की बात है आसान पर अपनाना बहुत मुश्किल.
ReplyDeletehttp://sahityasrajan.blogspot.com
अच्छा लगा जानकर।
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अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?
आप सही कह रही हैं , पर हमारी तरफ दिखावा ही मुख्य है और उसके पीछे तर्क यह कि विवाह रोज रोज नहीं होता .....
ReplyDeleteकई दिन बाद आपकी पोस्ट आयी है। आपने ये भी सही कहा कि लडकियाँ खुद ही विरोध नहीं करती लडके वालों के अनुचित बात का। बंगाली विवाह के बारे मे जान कर बहुत खुशी हुई कि चलो कहीं तो कुछ अच्छा बचा है । बहुत अच्छी पोस्ट है शुभकामनायें
ReplyDeleteमैडम, यदि भारत बर्बाद हुआ है तो इन भोंडी शादियों, टीवी कार्यक्रमों और क्रिकेट के कारन हुआ है. कहना तो नहीं चाहिए किन्तु बेशर्म होकर कहता हूँ कि मैंने और मेरी पत्नी ने २३ साल पहिले ठीक ऐसे ही विवाह किया था जिसमें केवल हमारे परिवारों के सदस्य थे. कोई बारात नहीं थी. पटाखे नहीं थे, विवाह दिन मैं हुआ था. हम आज भी सुखी हैं. तीन बच्चे हैं. हम सयुंक्त परिवार मैं रहते हैं. पूरी तरह सामाजिक जंतु हैं. पारिवारिक विवाह के अलावा अन्य विवाह मैं जाते. - मोहन लाल गुप्ता
ReplyDeleteअंतिम वाक्य इस प्रकार से है-
ReplyDeleteपारिवारिक विवाह के अलावा अन्य विवाह मैं नहीं जाते. - मोहन लाल गुप्ता
सादगी की हर परंपरा का स्वागत होना चाहिए और बाकी सब को भी इससे सीख लेनी चाहिए .......... और आज के महंगाई वाले माहौल में इसकी ज़रूरत और ज़्यादा है ...........
ReplyDeleteचलिए कहीं तो परम्परा जीवित हैं।
ReplyDeleteअनुकरणीय!
यदि इस बंगाली परिवार का अनुसरण करना आरम्भ कर दिया जाये तो समाज में एक ऎसी कुरीति दूर हो जाए जिसके कारण लड़की के कितने ही माता-पिता जीवन भर कर्जे में ही रहते हैं, जवानी में ही बुढ़ापा आ जाता है. आजकल 'सौदा' 'विवाह' का पर्याय बन चुका है. पहले सोचा करते थे कि ज्यूँ ज्यूँ शिक्षा का प्रसार होगा, कुछ कुरीतियाँ समाप्त हो जाएँगी, लेकिन अब उलटा हो रहा है. न जानेक्यों?
ReplyDeleteवास्तविकता तो यह है कि हमारे विवाह हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक हो गई है। समाज को इस व्यूह को तोड़ना होगा। तभी विवाह सादगी पूर्ण और माता-पिता के लिए भारी आर्थिक बोझे से हीन हो सकते हैं।
ReplyDeleteभारतीय परंपरा का एक रूप यह भी..बढ़िया जानकारी भरी सुंदर प्रस्तुति..आभार
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है! मैं बंगाली हूँ और आपका पोस्ट पढ़कर मुझे अपनी शादी की याद आ गई! हमारी शादी में लम्बी बारात नहीं आती है और न घोड़ी पर सवार होकर दूल्हा आता है और न ही कोई बाजे, नाच, पटाखे होते हैं पर विवाह की स्वस्थ परम्परा को बखूबी निभाया जाता है!
ReplyDeleteमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
यदि इसी तरह से विवाह हो तो क्या बात है ..पर ऐसा बहुत कम होता है यह बहुत अच्छा उदहारण हैं ..लड़के लडकियां खुद ही आगे आये तो सुधार संभव है ..
ReplyDeleteहमने तो अपने लड़के की शादी में बैंड-बाजे भी नहीं रखे ताकि सड़कों पर होते शोर गुल से बचा जा सके। हम सडक पर बारात से हो रहे विघ्न पर कोसते हैं तो हम क्यों न उससे बचें।
ReplyDeleteअब तक किसी बंगाली शादी में शरीक होने का मौका नहीं मिला.. आपकी बदौलत ये शरफ़ भी हासिल हो गया... बढ़िया मिसाल है..
ReplyDeleteaapne bhut achhi jankari di .par is sadgi ko nibahana apne aap me sukhd privartan hoga .
ReplyDeletesach kahoo to madhy prdesh ,rajsthan aupnjab aur uttrprdesh me ab jrurat se jyada dikhava hone laga hai vidnbna hai ki bhvy shadiya hi tutne ke kgar par hai .