Monday, September 14, 2009

नवगीत - बिखर पड़ा मन

सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन
बगियाँ के सामने
ठिठक खड़ा वन।

बरगद है गमले में
कुण्‍डी में जामुन
सुआ है पिंजरे में
बिल्‍ली है आँगन
छाँव गंध नायरे
पसर गया डर
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।

चूल्‍हा ना चौका है
जीमण ना झूठा
ऑवन में बर्गर है
फ्रीजर है मोटा
माँ न रही साथ रे
बिसर गया अन्‍न
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।

बूढ़ी सी आँखे हैं
आँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।

16 comments:

  1. परिधी में जैसे है
    बेलों का जोड़ा
    कोई नहीं हाय रे
    झुलस रहा तन
    सिमट गए दायरे
    बिखर पड़ा मन।
    आपकी कलम
    तो सदा ही से लुभाती रही है और इस रचना मे जाने कितनी अतीत वर्तमान की संवेदनायें सिमटी हुई हैं कैसे समय बदल रहा है एक छटपटाहट की झलक लिये सुन्दर रचना बन पडी है शुभकामनायें

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  2. बरगद है गमले में
    कुण्‍डी में जामुन
    सुआ है पिंजरे में
    बिल्‍ली है आँगन

    अद्भुत पंक्तियाँ हैं...वाह....बेजोड़ नवगीत...बधाई...
    नीरज

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  3. मर्म को छू गयी आपकी रचना ....
    बहुत सुंदर रचना ...बधाई .

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  4. सेप्ट 2009 का यह नवगीत, ओहो क्या ताज़गी है, लगता है अभी लिखा है - और इस में जो 'नाय रे' का उपयोग हुआ है - बोले तो अफलातून है।

    नई पोस्ट्स का अंबार लगाने की जगह थोड़ा रुक कर साथियों के ब्लोगस को खँगालने में आनंद आ रहा है।

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  5. बेहतरीन नवगीत।

    सादर

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  6. बूढ़ी सी आँखे हैं
    आँगन में झूला
    परिधी में जैसे है
    बेलों का जोड़ा
    कोई नहीं हाय रे
    झुलस रहा तन
    सिमट गए दायरे
    बिखर पड़ा मन।


    वाह बहुत सुंदर मार्मिक पंक्तियाँ !
    बधाई...

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  7. वर्तमान एवं अतीत के परिदृश्यों को एक साथ ही खूबसूरत शब्द चित्रों के माध्यम से आपने सामने ला खड़ा किया है ! अद्भुत रचना के लिये बहुत बहुत बधाई !

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  8. सुन्दर नवगीत...
    सादर बधाई...

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  9. बूढ़ी सी आँखे हैं
    आँगन में झूला
    परिधी में जैसे है
    बेलों का जोड़ा
    कोई नहीं हाय रे
    झुलस रहा तन
    सिमट गए दायरे
    बिखर पड़ा मन।

    ....बदलते समय की बहुत मर्मस्पर्शी और उत्कृष्ट प्रस्तुति..आभार

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  10. वर्तमान और अतीत की तुलना और अतीत के लिये व्याकुलता सब कुछ तो है इस कविता में । सुंदर ।

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  11. सिमट गए दायरे
    बिखर पड़ा मन
    बगियाँ के सामने
    ठिठक खड़ा वन।...........बहुत ही अच्छी रचना......

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  12. बूढ़ी सी आँखे हैं
    आँगन में झूला
    परिधी में जैसे है
    बेलों का जोड़ा
    कोई नहीं हाय रे
    झुलस रहा तन
    सिमट गए दायरे
    बिखर पड़ा मन।

    aapki rachna man ko chhu gayi

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  13. संगीता जी का आभार, जिन्‍होंने एक भूली हुई रचना की याद दिला दी। पूर्व में कई रचनाएं लगाई गयीं लेकिन तब पाठक नहीं थे, लेकिन अब आप सब का साथ मिला है तो अच्‍छा लग रहा है।
    नवीन जी, मुझे भी नायरे का प्रयोग अच्‍छा लगा था लेकिन आज आपने इसे अच्‍छा कहा है तो बहुत अच्‍छा लग रहा है।

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