सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन
बगियाँ के सामने
ठिठक खड़ा वन।
बरगद है गमले में
कुण्डी में जामुन
सुआ है पिंजरे में
बिल्ली है आँगन
छाँव गंध नायरे
पसर गया डर
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
चूल्हा ना चौका है
जीमण ना झूठा
ऑवन में बर्गर है
फ्रीजर है मोटा
माँ न रही साथ रे
बिसर गया अन्न
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
बूढ़ी सी आँखे हैं
आँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
परिधी में जैसे है
ReplyDeleteबेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
आपकी कलम
तो सदा ही से लुभाती रही है और इस रचना मे जाने कितनी अतीत वर्तमान की संवेदनायें सिमटी हुई हैं कैसे समय बदल रहा है एक छटपटाहट की झलक लिये सुन्दर रचना बन पडी है शुभकामनायें
बरगद है गमले में
ReplyDeleteकुण्डी में जामुन
सुआ है पिंजरे में
बिल्ली है आँगन
अद्भुत पंक्तियाँ हैं...वाह....बेजोड़ नवगीत...बधाई...
नीरज
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 01-12 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज .उड़ मेरे संग कल्पनाओं के दायरे में
मर्म को छू गयी आपकी रचना ....
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ...बधाई .
सेप्ट 2009 का यह नवगीत, ओहो क्या ताज़गी है, लगता है अभी लिखा है - और इस में जो 'नाय रे' का उपयोग हुआ है - बोले तो अफलातून है।
ReplyDeleteनई पोस्ट्स का अंबार लगाने की जगह थोड़ा रुक कर साथियों के ब्लोगस को खँगालने में आनंद आ रहा है।
बेहतरीन नवगीत।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या कहने
बूढ़ी सी आँखे हैं
ReplyDeleteआँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
वाह बहुत सुंदर मार्मिक पंक्तियाँ !
बधाई...
वर्तमान एवं अतीत के परिदृश्यों को एक साथ ही खूबसूरत शब्द चित्रों के माध्यम से आपने सामने ला खड़ा किया है ! अद्भुत रचना के लिये बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना,..बधाई ,...
ReplyDeleteसुन्दर नवगीत...
ReplyDeleteसादर बधाई...
बूढ़ी सी आँखे हैं
ReplyDeleteआँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
....बदलते समय की बहुत मर्मस्पर्शी और उत्कृष्ट प्रस्तुति..आभार
वर्तमान और अतीत की तुलना और अतीत के लिये व्याकुलता सब कुछ तो है इस कविता में । सुंदर ।
ReplyDeleteसिमट गए दायरे
ReplyDeleteबिखर पड़ा मन
बगियाँ के सामने
ठिठक खड़ा वन।...........बहुत ही अच्छी रचना......
बूढ़ी सी आँखे हैं
ReplyDeleteआँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
aapki rachna man ko chhu gayi
संगीता जी का आभार, जिन्होंने एक भूली हुई रचना की याद दिला दी। पूर्व में कई रचनाएं लगाई गयीं लेकिन तब पाठक नहीं थे, लेकिन अब आप सब का साथ मिला है तो अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteनवीन जी, मुझे भी नायरे का प्रयोग अच्छा लगा था लेकिन आज आपने इसे अच्छा कहा है तो बहुत अच्छा लग रहा है।